- उपयुक्त कम पानी वाली फसलों को बढ़ावा देकर धान की अंधाधुंध खेती पर लगाम लगाई जा सकती है
- धान की ऐसी प्रजातियों को प्रोत्साहित करें जो समय और पानी दोनों कम लेती हैं
- ऐसी कंबाइन हार्वेस्टर मशीनें विकसित की जाएं जो धान निकालते वक्त पराली भी खेत से हटा लें तो पराली किसानों के लिए अतिरिक्त आय का साधन हो सकता है
सर्दी का मौसम आने वाला है तो दिल्ली में हर साल की तरह वायु प्रदूषण प्रत्यासित है। जिस हिसाब से दिल्ली में ट्रैफिक है उस हिसाब से तो दिल्ली में वायु प्रदूषण तय सीमा से अधिक ही होने वाला है खासकर अक्टूबर, नवंबर, दिसंबर महीने में। अक्टूबर/नवंबर महीने में धान की फसल कटाई होती है और दीवाली का त्योहार भी होता है। और दिल्ली में बढ़े वायु प्रदूषण का आरोप-प्रत्यारोप पराली जलाने और दीवाली के पटाखों पर होता है। वैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर तो पराली और दीवाली दिल्ली के वायु प्रदूषण में कोढ़ में खाज होने जैसा है। पराली वाले PM2.5 में कार्बनिक अंश ज्यादा होता है और ये आंख नाक गले मे जलन पैदा करने वाले रेडिकल ज़्यादा पैदा करता है। वहीं दीवाली वाला धुआं तो ज़हर होता ही है।
वैसे दिल्ली में पराली प्रदूषण का मामला ज़्यादा पुराना नही है। साल 2010 में दिल्ली में वायु प्रदूषण की समस्या संज्ञान में आई थी पर तब किसी का ध्यान पराली जलाने पर नही गया था। हुआ ये कि हरित क्रांति की वजह से सरकारों द्वारा किसानों को सिंचाई के लिए बिजली और डीजल में जमके सब्सिडी दी गयी। पंजाब और हरियाणा जो कि मुख्यतः गेहूं उत्पादन के केंद्र थे, सिंचाई जल पाकर धान पैदा करने लगे। और तो और धान पर एमएसपी होने से किसानों को धान पैदा करना ज़्यादा लाभदायक काम लगा। वैसे एमएसपी गेंहूँ की खरीद पर भी है लेकिन गेंहू की बुवाई से फसल तैयार करने का समय सर्दियों का होता है और गेंहू धान की तरह बहुत अधिक पानी वाली फसल भी नही है।
धान की खेती में किसानों ने ज़मीनी जल को ट्यूबवेल/इलेक्ट्रिक मोटर से अंधाधुंध तरीके से दोहन किया। परिणाम ये हुआ कि ज़मीनी जल का स्तर बहुत कम हो गया। एक वक्त ऐसा लगने लगा कि समूचा पंजाब सूखाग्रस्त होकर बंजर हो जाएगा। सरकार के नीति नियंताओं ने सुझाव दिया कि बिना किसी नियम कानून के ज़मीनी जल के अंधाधुंध दोहन को रोका नही जा सकता है।
तब आमजन और सरकार का ध्यान इस समस्या पर गया। विशेषज्ञों ने सरकार को बताया कि अगर पंजाब - हरियाणा में धान की बुवाई जो कि अप्रैल में ही शुरू हो जाती थी, को शिफ्ट करके मई -जून कर दिया जाए तो धान की खेती में पानी की खपत को काफी हद तक कम किया जा सकता है। इसके लिए एक पॉलिसी ड्राफ़्ट तैयार किया गया और पहली बार साल 2005 में अमरिंदर सिंह सरकार में ये ड्राफ्ट रिव्यु के लिए गया पर इसे पास नही किया जा सका। ये ड्राफ्ट दुबारा अकाली-बीजेपी की सरकार में रिव्यु के लिए गया और दुबारा भी पास नही हो सका। लेकिन इसी सरकार ने साल 2008 में इस पॉलिसी ड्राफ्ट को प्रायोगिक तौर पर स्वीकार कर लिया इस तथ्य पर कि अगर धान की खेती मई -जून में शिफ्ट करने से जमीनी जल बढ़ता है तो इसे बनाये रखा जाएगा। 10 जून 2009 को Punjab Preservation of Subsoil Water Act, लागू किया गया और अगले कुछ सालों में जमीनी जल के स्तर में अच्छी बढ़ोत्तरी पाई गई। चलिए, पानी की समस्या तो कुछ हद तक ठीक हुई । लेकिन इस वजह से 120 दिन में पैदा होने वाली धान की फसल की कटाई अक्टूबर - नवंबर में शिफ़्ट हो गयी।
सस्ते लेबर की कमी ने धान की कटाई को मशीन केंद्रित बना दिया। धान की कटाई में काम आने वाली कंबाइन हार्वेस्टर मशीन खेत से धान तो अच्छे से निकाल देती है लेकिन पराली खेत में ही छोड़ देती है। पराली हटाना किसान के लिए बहुत ज़रूरी होता है क्योंकि गेंहू की बुवाई का सबसे बढ़िया वक्त यही नवंबर का पहला दो हफ्ता होता हैं। इस दस-पंद्रह दिन के छोटे से वक्त में किसान के पास पराली जलाने से सस्ता और आसान तरीका और कोई होता नही।
पराली जलाने से उत्पन्न PM2.5 सूक्ष्म कण करीब 250 किलोमीटर का रास्ता तय करके दिल्ली तक पहुंच आते हैं। इस तरह से देखा जाए तो पंजाब में जल संरक्षण के भले उद्देश्य की पॉलिसी ने दिल्ली सहित पूरे एनसीआर में वायु प्रदूषण को अप्रत्याशित रूप से बढ़ा दिया। वैसे तो एनजीटी आर्डर द्वारा पंजाब-हरियाणा के किसानों पर पराली जलाने पर रोक है, और जुर्माना भी है, पर पराली प्रदूषण की समस्या को सिर्फ़ किसानों की गलती बताकर हल नही किया जा सकता। उपयुक्त सरकारी नीति इस समस्या को हल कर सकती है।
इस बात को समझना ज़रूरी है कि पराली जलाने से वायु प्रदूषण की समस्या में अक्टूबर-नवंबर का स्थायी वातावरण काफी हद तक ज़िम्मेदार है। अगर पराली को गर्मी में जलाना होता तो पराली जलने से निकलने वाले वायु प्रदूषक आसमान में उड़कर गायब हो जाते, न कि सर्द मौसम में हवा में तैरते रहते।
वैसे हर दिन सुबह और शाम का वक्त वायु प्रदूषण के नज़रिए से बहुत क्रिटिकल होता है। इस वक्त वातावरण स्थिर रहता है और जो कुछ भी हवा में छोड़ा जाता है वो सब कई घंटों तक हवा में तैरता रहता है। इसी हवा को दिल्ली और एनसीआर वासी सांस लेते वक्त खींचते हैं और हवा में मौजूद सब कुछ उनके फेफड़ो में पहुँच जाता है जिससे सांस, हृदय यहां तक कि मधुमेह की बीमारी का खतरा बहुत अधिक बढ़ जाता है।
इसीलिए सुबह और शाम के वक्त दिल्ली और एनसीआर वासियों और सरकारों को वायु प्रदूषण सभी गतिविधियों (डीजल/पेट्रोल वाली गाड़ियां और उद्योग मशीनें, आदि) पर गंभीरता से ध्यान देना चाहिए।
निम्नलिखित उपाय पराली नियंत्रण में कारगर हो सकते हैं:
- सरकारें ऐसी नीति लेकर आएं जो धान की खेती को पंजाब ही नही पूरे उत्तर भारत में कम करने को प्रोत्साहित करें। धान की फसल बहुत ज्यादा पानी लेती है और पंजाब सहित पूरे उत्तर भारत की जलवायु धान की फसल के लिए अनुकूल नही है। धान की खरीद पर एमएसपी धान की खेती को प्रोत्साहित करती हैं। उपयुक्त कम पानी वाली फसलों को बढ़ावा देकर धान की अंधाधुंध खेती पर लगाम लगाई जा सकती है।
- अंतर्राष्ट्रीय चावल अनुसंधान संस्थान द्वारा हाल के वर्षों में बहुत सी सूखा-प्रतिरोधी धान की प्रजातियां (सहभागी धान, डीआरआर धान 42, 43, 44) भारतीय जलवायु को केंद्र में रखकर विकसित की गई हैं। साथ ही ऐसी प्रजातियां कम वक्त (105 दिन) में ही तैयार हो जाती हैं। ऐसी धान की प्रजातियों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
- धान की कटाई में मशीन का उपयोग ही खेतों में पराली छोड़ देता है। धान निकालने के बाद पराली दुबारा से हटाना किसान के लिए किसी भी दृष्टि से लाभकारी नही। अगर ऐसी कंबाइन हार्वेस्टर मशीनें विकसित की जाएं जो धान निकालते वक्त पराली भी खेत से हटा लें तो पराली किसानों के लिए अतिरिक्त आय का साधन हो सकता है। पराली को खेत से धान निकालते वक्त न हटा पाना ही इसे किसानों को जलाने पर बाध्य करता है और पराली से जुड़े सभी व्यवसाय, चाहे चीनी मिल या कोयले के औद्योगिक संयत्रों में बिजली पैदा करना हो या बायोगैस संयत्र से बायोगैस, सब घाटे में चले जाते हैं।