भारत की जनसंख्या अभी 1.04% की सालाना दर से बढ़ रही है। 2030 तक जनसँख्या 1.5 अरब तक पहुँचने का अनुमान है लेकिन इतनी बड़ी जनसँख्या का पेट भरने के लिए खाद्यान उत्पादन में अनेक समस्याएं हैं। जलवायु परिवर्तन न सिर्फ़ आजीविका, पानी की आपूर्ति और मानव स्वास्थ्य के लिए खतरा पैदा कर रहा है बल्कि खाद्य सुरक्षा के लिए भी चुनौती खड़ी कर रहा है। ऐसे में यह सवाल पैदा होता है कि क्या भारत जलवायु परिवर्तन के खतरों के बीच आने वाले समय में इतनी बड़ी जनसँख्या का पेट भरने के लिए तैयार है? भारत आज जिन चुनौतियों का सामना कर रहा है, उनमें से खाद्य सुरक्षा की चुनौती सबसे प्रमुख है। न सिर्फ़ भारत बल्कि अन्य विकाशील देशों के सामने भी ये चुनौतियां हैं। जैसे-जैसे चुनौतियां बढ़ रही हैं, हमें बड़ी तत्परता से काम करने की जरूरत है। फ़ूड एंड लैंड यूज़ (FOLU) की वैश्विक रिपोर्ट इन चुनौतियों का सामना करने के लिए लगभग दस महत्वपूर्ण बदलावों की बात करती है।
FOLU अनेक संगठनों का एक समुदाय है। वैश्विक स्तर पर FOLU की शुरुआत 2017 में हुई। FOLU हमारे खाद्य उपभोग, उत्पादन और लोगों द्वारा प्रकृति, भूमि के उपयोग को तत्काल बदलने की ज़रूरत के लिए प्रतिबद्ध है। भारत में भी सतत उपभोग को बढ़ावा देने के लिए FOLU India प्रोजेक्ट की शुरुआत 2019 में की गयी है। इसका उद्देश्य बढ़ती आबादी के लिए पोषण, किसानों की आजीविका में सुधार, भोजन की बर्बादी को रोकना, जंगलों और खेती की सुरक्षा बनाये रखना है। FOLU India, कॉउन्सिल ऑन एनर्जी, एनवायरनमेंट एंड वॉटर (CEEW), द इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट, अहमदाबाद (IIMA), द एनर्जी एंड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट(TERI) और वर्ल्ड रिसोर्सेज इंस्टिट्यूट (WRI) के बीच एक संयुक्त पहल है। यह पहल सतत भोजन, भूमि उपयोग प्रणाली और नीतिगत निर्णयों को तय करने में लम्बे समय के लिए काम करेगी।
भारतीय कृषि के सामने चुनौतियां
घट रहा है उत्पादन
1950 के दशक की शुरुआत से, खाद्यान्न की पैदावार बढ़ी है। 1951 में 51 मिलियन टन से 2018 में 285 मिलियन टन हो गई है यानी लगभग पांच गुना वृद्धि। पिछले 50 वर्षों में, भारतीय कृषि ने जबरदस्त प्रगति की है, जो मुख्यत सिंचित क्षेत्रों में हरित क्रांति से प्रेरित है जिसने व्यापक रूप से गेहूं और चावल जैसे खाद्यान्नों की अधिक उपज देने वाली किस्मों को अपनाने के लिए प्रेरित किया साथ ही उर्वरकों, कीटनाशकों के उपयोग को भी बढ़ावा मिला।
भारत में कृषि क्षेत्र के सामने सबसे बड़ी समस्या अब कम उपज की है। भारत की कृषि उपज विकसित देशों की तुलना में 30-50% कम है। इसके पीछे बहुत से कारण है जैसे औसत कृषि आकार, खराब बुनियादी ढांचा, सर्वोत्तम कृषि तकनीक का कम उपयोग, निरंतर कीटनाशक के उपयोग के कारण मिट्टी की उर्वरता में कमी, मिटटी के कटाव और मिटटी में कार्बन की कमी की वजह से उत्पादकता और खेती में कमी आ रही है।
खाद्य सुरक्षा की समस्या शुरू में कम कृषि उत्पादन और खाद्यान्न की खराब उपलब्धता पर केंद्रित थी। समस्याएं पहले से अब अलग हैं। आवश्यक वस्तुओं की कीमतें बढ़ रही हैं, किसानों को उनके उत्पादन के लिए कम लाभ मिल रहा है और वर्तमान पीढ़ी किसानी व्यवसाय में अपनी दिलचस्पी खो रही है। जल संकट, जलवायु परिवर्तन और पारिस्थितिक खतरों जैसे मुद्दे भी चरम पर हैं। इन समस्याओं से निपटने के लिए बेहतर कृषि विधियों जैसे - जैविक खेती, एकीकृत कीट प्रबंधन, फसल विविधीकरण, जैव उर्वरकों का उपयोग और सतत खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए जल और भूमि के उचित प्रबंधन पर ध्यान देना चाहिए।
भारत में 52% कृषि क्षेत्र सिंचाई के लिए वर्षा पर आधारित है, हालांकि बारिश वाले क्षेत्रों में फसल का उत्पादन कम है। ये क्षेत्र पोषण सुरक्षा के दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण हैं क्योंकि वे दलहन, तिलहन जैसी पौष्टिक फसलों के उत्पादन और साथ ही पशुपालन में इसकी बड़ी हिस्सेदारी है। अगर मानसून विफल हो जाए तो पानी की कमी के कारण ऐसे क्षेत्र अधिक अकाल का शिकार भी होते हैं और अपेक्षाकृत कम समृद्ध होते हैं। ऐसे क्षेत्रों में गरीबी भी अधिक होती है। इसलिए यह सुनिश्चित करना एक बड़ा मुद्दा है कि ऐसे क्षेत्र उपयुक्त फसलों को उगाएं जो की स्थानीय ज़रूरतों को पूरा करें और साथ में किसानो की आमदनी में भी वृद्धि हो।
कृषि में रोज़गार की कमी, बढ़ा पलायन
50% से अधिक आबादी (और कुछ राज्यों में 80% तक) प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कृषि और उससे जुड़ी गतिविधियों पर निर्भर है, इसलिए कृषि में सुधार देश की गरीबी कम करने की रणनीति का एक अभिन्न अंग है। खेती से होने वाली कम आय ग्रामीणों को गरीबी की ओर धकेल रही है। इससे उत्पादकता भी असर हो रहा है और यह बेहद चिंता का विषय है।अगर हम ग्रामीण विकास पर ध्यान दें तो इससे गरीबों, भूमिहीन, महिलाओं, अनुसूचित जातियों और जनजातियों को भी लाभ होगा। पिछली दो जनगणना रिपोर्ट में खेती करने वालों की संख्या में गिरावट और खेतिहर मजदूरों की संख्या में वृद्धि देखी गई है। 1990 में कुल रोजगार में कृषि रोजगार की हिस्सेदारी 61% थी, 2014 में यह घटकर 47% पर आ गयी। कृषि व्यवसाय से बाहर निकल रहे लोगों को अन्य क्षेत्रों में भी रोज़गार के अवसर नहीं मिल रहे हैं और यह चिंता का विषय है। इसके अलावा क्षेत्रीय विषमताएं भी हैं देश के ज़्यादातर गरीब वर्षा आधारित इलाकों में मिलते हैं और ऐसे समूहों तक पहुंचना आसान नहीं है।
कुपोषण को दूर करना एक समस्या
2017-18 में भारत ने रिकॉर्ड 284.83 मिलियन टन खाद्यान्न का उत्पादन किया, फिर भी किसानों की आय स्थिर बनी हुई है और 15% आबादी अभी भी कुपोषित है। पर्याप्त भोजन तक पहुंच खाद्य सुरक्षा का एक महत्वपूर्ण निर्धारक है, लेकिन गरीबी की वजह से लोगों की पहुँच पर्याप्त भोजन तक नहीं होती। गरीबी की व्यापकता को खाद्य सुरक्षा के मुद्दे से जोड़ा जाता है क्योंकि गरीब अक्सर कुपोषित और कमज़ोर होते हैं। सरकार की नीतियों ने फसल विकल्पों, फसल की तीव्रता, कृषि रसायनों के उपयोग आदि को प्रभावित किया है, लेकिन फसल विविधता और मिटटी की गुणवत्ता के मुद्दों को काफी हद तक नजरअंदाज किया है। इसके अलावा, कृषि विकास की नीतियों ने जनसंख्या की पोषण संबंधी आवश्यकताओं की उपेक्षा की है और इसलिए पर्याप्त रूप से कुपोषण को दूर करने की समस्या बनी हुई है। कृषि क्षेत्र में बेहतर पद्धतियों के लिए विधायी परिवर्तन और सार्वजनिक-निजी भागीदारी मॉडल के माध्यम से ध्यान देना चाहिए। जिसमें प्रोटीन आधारित और पौष्टिक फसलों, ऋण, तकनीक, बाज़ार तक पहुँच, वैकल्पिक फसलों पर खाद्य प्रसंस्करण उद्योग का फोकस बढ़ाना और खाद्य सुरक्षा पर ध्यान देना चाहिए।
खाद्य सुरक्षा के संकट को मिटाने में मदद करेगा FOLU India
कृषि क्षेत्र में वर्तमान और आने वाली चुनौतियों का सामना करने के लिए भारत को ज़रूरत है सतत खाद्य उत्पादन और उपभोग की। न सिर्फ़ भारत बल्कि विकासशील देशों के सामने पैदा होती खाद्य सुरक्षा की चुनौतियों को देखते हुए सतत विकास लक्ष्यों में इसे जगह दी गयी है। 2015 में संयुक्त राष्ट्र ने 17 सतत विकास लक्ष्यों का आह्वान किया। ये लक्ष्य भारत में खाद्य और पोषण सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं। 2030 तक इन लक्ष्यों को पाने के लिए पोषण, भुखमरी और सतत कृषि के अंतरसंबंध को समझना होगा। खाद्य उत्पादन और खपत के मौजूदा तरीके पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधनों पर भारी बोझ लाद रहे हैं।
सितम्बर 2019 में न्यूयॉर्क में global FOLU coalition ने Growing Better: Ten Critical Transitions to Transform Food and Land Use नाम से एक ऐतिहासिक रिपोर्ट भी जारी की। यह रिपोर्ट बताती है कि जिस तरह से लोग भोजन का उत्पादन और उपभोग कर रहे हैं वो पर्यावरण, विकास और मानव स्वास्थ्य पर भार डाल रहा है और यह भार 12 ट्रिलियन अमरीकी डालर प्रति वर्ष छिपी हुई लागत है। यदि मौजूदा रुझान जारी रहता है, तो यह लागत 2050 तक 20 ट्रिलियन अमरीकी डालर हो सकती है। रिपोर्ट में हर साल 2030 तक 4.5 ट्रिलियन अमरीकी डॉलर तक के नए व्यापर अवसर शुरू होने का भी ज़िक्र है। साथ ही यह 2030 तक लोगों और ग्रह को होने वाले 5.7 ट्रिलियन अमरीकी डॉलर की लागत तक के नुक्सान से बचाएगा, जो कि प्रति वर्ष 350 बिलियन निवेश का 15 गुना से ज़्यादा है।
क्या है रणनीति?
FOLU India के सलाहकार एस विजय कुमार बताते हैं कि " भारतीय कृषि के सामने चुनौतियां चौ तरफ़ा है। वैज्ञानिकों और नीति निर्माताओं को भूमि क्षरण, जल की कमी, स्थिर कृषि आय, कम रोजगार सृजन और जलवायु परिवर्तन पर तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है। साथ ही, कुपोषण और आहार से संबंधित स्वास्थ्य समस्याएं भी हमारे सामने है। FOLU इंडिया इन समस्याओं के सामाजिक और वित्तीय बोझ के विश्लेषण के साथ-साथ उन्हें संबोधित करने का मार्ग तैयार कर सकता है। FOLU इंडिया का उद्देश्य राष्ट्रीय और राज्य-स्तरीय नीति निर्माताओं और कार्यान्वयन एजेंसियों को अंतर्दृष्टि प्रदान करना और स्थानीय परिस्थितियों और आवश्यकताओं के अनुसार समाधान ढूंढ़ने में सहायता करना है।
FOLU इंडिया उन सटीक महत्वपूर्ण बदलावों की पहचान करने के लिए विस्तृत डेटा संग्रह और विश्लेषण करेगा, जो राष्ट्र के लिए आवश्यक होगी। यह खाद्य और भूमि क्षेत्र के भीतर और विभिन्न क्षेत्रीय पहल के बीच एकीकरण और व्यापार की पहचान करने में नीति निर्माताओं की मदद करेगा। यह नीति निर्माताओं को निवेश निर्णय लेने में सक्षम बनाएगा। "
टेरी में फेलो मनीष आनंद इस प्रोजेक्ट के बारे में बताते हैं कि FOLU India के मुख्य साझेदार एक रिपोर्ट तैयार करेंगे जो खाद्य और भूमि उपयोग क्षेत्र में विभिन्न मुद्दों के बीच संबंधों को उजागर करेगी जो आमतौर पर क्षेत्रीय दृष्टिकोण में दिखाई नहीं देते हैं। 2020 के लिए अनुसंधान प्राथमिकताओं में शामिल हैं: खाद्य हानि और अपशिष्ट का विश्लेषण, कृषि और संबद्ध क्षेत्रों में मानव संसाधनों का मानचित्रण और मूल्यांकन, भारत में वैकल्पिक कृषि प्रणालियों और प्रथाओं का दस्तावेजीकरण; और घरेलू और वैश्विक पर्यावरणीय स्थिरता पर भारतीय कमोडिटी आयात और निर्यात के प्रभावों का विश्लेषण करना।
FOLU India अंततः कई एजेंसियों (सरकारी और गैर-सरकारी; केंद्रीय स्तर के साथ-साथ राज्य स्तर) के साथ साझेदारी करेगा, एजेंसियों का एक साथ आना FOLU India के लक्ष्यों को हासिल करने के लिए आवश्यक है। यह भोजन और भूमि उपयोग प्रणालियों के प्रबंधन में मदद करेगा जो एक कुशल और समावेशी अर्थव्यवस्था के लिए ज़रूरी है।
(यह लेख टेरी के वरिष्ठ फेलो और FOLU India के भारतीय सलाहकार एस विजय कुमार और टेरी में फेलो मनीष आनंद से हुई बातचीत पर आधारित है)