यूँ तो पिघलते रहना ग्लेशियर की प्रकृति है लेकिन कोलाहोई ग्लेशियर बहुत तेज़ी से पिघल रहा है।
5,425 मीटर ऊँचे आसमान से बातें करते माउंट कोलाहोई को देखना शानदार अनुभव है। माउंट कोलाहोई पश्चिमी हिमालय के उन क्षेत्रों में से एक है जहां ग्लेशियर मौजूद हैं। पहलगाम से लगभग 35 किलोमीटर की दूरी पर, कश्मीर में वेस्ट लिद्दर घाटी में कोलाहोई ग्लेशियर स्थित है। 5 किमी तक यह घाटी बर्फ से ढकी है। यही कारण है कि स्थानीय लोग इसे ‘‘Goddess of Light’’ के रूप में जानते हैं। लिद्दर नदी झेलम नदी में जाकर मिल जाती है। यह ग्लेशियर ग्रामीण अर्थव्यवस्था और पर्यटन को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। झेलम में पानी सर्दियों के दौरान बर्फ के पिघलने के साथ-साथ पर्वतीय क्षेत्रों में ग्लेशियरों के पिघलने से बहता है। कोलाहोई के पानी के कारण, कश्मीर घाटी अनाज की फ़सलों, सूखे मेवों, केसर और सेब की खेती के लिए काफी उपजाऊ है।
कश्मीर में कई बस्तियां पिघलते पानी पर निर्भर हैं
कोलाहोई सहित पश्चिमी हिमालय के ग्लेशियर पहाड़ पर अपनी भौगोलिक स्थिति और अन्य कारणों जैसे दक्षिण की ओर ढलान, उच्च ऊर्ध्वाधर ढाल में अपने स्थान के कारण स्वाभाविक रूप से अतिसंवेदनशील हैं। लेकिन झेलम बेसिन में औसत तापमान के बढ़ने, ऊपरी लिद्दर घाटी में वनों की तेजी से हो रही कटाई, और ग्लेशियर के पास मानव गतिविधि बढ़ने के कारण ग्लेशियर की संवेदनशीलता और ज्यादा बढ़ गई है। अब हर मौसम में बर्फबारी की कमी दिखाती है कि कोलाहोई सिकुड़ रहा है। इसके साथ ही चिंता की एक बात बर्फबारी का समय भी है, यह समय अब ठंड के आखिर में खिसक रहा है। जाती हुई ठंड के समय गिरने वाली बर्फ जमा नहीं हो पाती और जैसे जैसे दिन गर्म होते जाते हैं यह तुरंत पिघलना शुरू हो जाती है।
टेरी का ग्लेशियर अनुसंधान कार्यक्रम कोलाहोई की स्थिति पर प्रकाश डालता है
टेरी ने 2008 में हिमालय में जलवायु और हाइड्रोलॉजिकल (जल विज्ञान) परिवर्तनों का विश्लेषण करने के लिए ग्लेशियर अनुसंधान कार्यक्रम शुरू किया। केस स्टडी के लिए तीन ऐसी जगहों को चुना गया जो लंबे समय तक स्टडी के लिए आदर्श हों। जिसमें एक कोलहोई ग्लेशियर, दूसरा सिक्किम में पूर्वी रथोंग ग्लेशियर और तीसरा उत्तराखंड में सुन्दरढूंगा ग्लेशियर शामिल है।
टेरी द्वारा कश्मीर विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक सहयोग से झेलम बेसिन में ग्लेशियर पर अनुसंधान किया जा रहा है। 2009 के सितंबर के महीने में, TERI के वैज्ञानिकों की एक टीम ने कोलाहोई ग्लेशियर निगरानी वेधशाला में 3,925 मीटर की ऊंचाई पर एक ऑटोमैटिक वेदर स्टेशन (AWS) स्थापित किया। यह उपकरण कोलाहोई के द्रव्यमान संतुलन को मापने के लिए सभी आवश्यक सेंसरों से लैस है। ये सेंसर बताते हैं कि ग्लेशियर, अब एक ओर जहां सर्दियों में इनका फैलाओ कम हो रहा है साथ ही ये गर्मियों में तेजी से पिघल भी रहे हैं।
सतलंजन साइट पर स्थापित प्लवियो स्नो सेंसर, नियमित माप लेता है
इस परियोजना का मुख्य उद्देश्य लोगों की नदी पर आजीविका निर्भरता और नदी में ग्लेशियर के पिघलने के योगदान को समझने की है। वेस्ट टीम लिद्दर नदी में स्थित लिद्दरवात डिस्चार्ज स्टेशन पर जल स्तर रिकॉर्ड करती है। साथ ही साथ ग्लेशियर के क्षेत्र में जमा होने वाले बर्फ की मात्रा को भी मापती है।
पूरे क्षेत्र की वर्तमान स्थिति क्या है?
कोलाहोई तेजी से पिघल रहा है जिसके कारण एक समय में चांदी की तरह चमकने वाली लिद्दर नदी की धाराएं अब अपनी सुंदरता और संतुलन खो रही हैं।
मास बैलेंस का माप और सैटेलाइट डाटा बताते हैं कि ग्लेशियर तेज़ी से पिघल रहा है। लेकिन स्थिति इससे ज़्यादा ख़राब है। टीम ने ये भी पाया कि ग्लेशियर में बड़ी बड़ी कई दरारें पड़ चुकी है। आस-पास के पहाड़ों से निकलने वाले मलबे से ढक चुका है और इसके कारण एक समय में दूध की तरह सफेद दिखने वाला ये ग्लेशियर अब भूरा और मटमैला नजर आने लगा है।
टेरी में सेंटर फॉर हिमालयन इकोलॉजी के फेलो डॉ श्रेष्ठ तायल कहते हैं कि, सैटेलाइट द्वारा कोलाहोई के 1980 से 2015 तक लिए गए फोटो के जरिए इस क्षेत्र में होने वाले परिवर्तन को मापा गया है। इनसे पता चलता है कि ग्लेशियर लंबाई में 10% की कमी आई है। वहीं इसके एरिया में 13.5% और वॉल्यूम में 18% की कमी हुई है।"
टेरी के विश्लेषण से पता चलता है कि झेलम बेसिन ने सन् 2000 के बाद से स्नो कवर एरिया (एससीए) का लगभग 7.4% खो दिया है। वहीं एक तरफ जहां 1980-90 तक ग्लेशियर ने अपनी लंबाई का लगभग 1% खोया था और 1990-2000 में आंकड़ा 1.1% हालांकि, अगले दशक में, ये दर 5.4% तक बढ़ गई।
इसकी लंबाई, एरिया (क्षेत्रफल) और वॉल्यूम (मात्रा) में नुक्सान एक तरह की गिरावट दिखाता है। अगर कुल मिलाकर देखें तो ग्लेशियर बहुत तेज़ी से अपनी बर्फ खो रहा है।
लिद्दर के किनारे रहने वाले लोगों का जीवन अधर में लटका है
अगर लिद्दर लुप्त हो जाने के बाद क्या घाटी में रह रहे लोगों के पास सेब के बागान और केसर के खेत बचेंगे? टेरी का अनुमान है कि गर्मियों की शुरुआत में झेलम के इलाके में बर्फ का 50 प्रतिशत हिस्सा पिघल जाता है। जिसके चलते बाद में जब किसानों को फसल के लिये पानी की जरुरत पड़ती है वो पानी की किल्लत से जूझते हैं। लिद्दर नदी के कुल पानी के 62 प्रतिशत पानी का स्त्रोत ग्लेशियर ही है।
डॉ तायल बताते है कि बर्फ के पिघलने से कश्मीर के पारिस्थिकी तंत्र (ईकॉलोजी) पर भी असर पड़ रहा है जो कि कश्मीर के पर्यटन के लिए खतरा है। कश्मीर का पर्यटन उद्योग इसकी प्राकृतिक सुंदरता पर ही निर्भर है। बिना प्राकृतिक सुंदरता के स्थानीय अर्थव्यवस्था चरमरा जाएगी। कोलाहोई ग्लेशियर में किसी भी तरह का कोई बदलाव भविष्य में नदी के तट पर रह रहे लोगों की आजीविका के लिए एक बड़ी चुनौती है।
हर साल अनुमान से कम होती बर्फबारी, पर्यटन और खेती दोनों के लिए नुकसानदायक है। इन दोनों क्षेत्रों से घरेलु आय का 95 प्रतिशत हिस्सा प्राप्त होता है।
एक तरफ जहां राज्य में जनसंख्या वृद्धि दर 23.6 प्रतिशत है वहीं दूसरी तरफ अनंतनाग की जनसंख्या में 10 प्रतिशत की गिरावट आई है। इसका प्रमुख कारण जलवायु परिवर्तन की दृष्टि से अतिसंवेदनशील लिद्दर क्षेत्र में कमी आना हो सकता है। सेब और चावल की फसलें लगातार पानी मांगती हैं। जिसके कारण सिंचाई के लिए एक व्यापक और सदाबहार व्यवस्था का होना जरुरी है। इस ज़रूरत को कोलहोई ही पूरा करता है।
कश्मीर में पर्याप्त बर्फबारी नही होने से मिट्टी में नमी बहुत कम हो जाती है। इसका सीधा असर केसर की फसलों पर पड़ा है और उनकी उपज में तेज़ गिरावट भी देखने को मिलती है। साथ ही हरियाली नहीं होने की वजह से चरवाहे कहीं और चारागाह ढूंढने के लिए मजबूर हैं।
500 ग्राम केसर इकट्ठा करने के लिए 75,000 फूलों की जरुरत पड़ती है
आरु में रहने वाले मोहम्मद अशरफ टेरी के साथ जुड़े हैं। अशरफ हर महीने लगभग तीन बार ग्लेशियर तक जाते हैं। उन्होंने बताया कि, "अगर ग्लेशियर जल्दी पिघले तो हमारे बाग और खेतों को बाढ़ का खामियाजा भुगतना पड़ सकता है। दूसरी तरफ, फसल के समय पानी की कमी के कारण सेब अपना प्राकृतिक रंग और स्वाद खो भी रहे हैं।"
अशरफ बिल्कुल सटीक डेटा इकट्ठा करने के लिए इतनी ऊंचाई वाले क्षेत्र में चल रहे उपकरणों की देखभाल करते हैं। अशरफ बड़े ही दुखी मन से कहते हैं, इसके पहले कि हमारा कोलाहोई, पोखरों में बदल जाए, अभी सही समय इसके लिए कदम उठाए जाएँ वरना बहुत देर हो जाएगी।"
पश्चिमी हिमालय के दूर जटिल और दुर्गम इलाकों के कारण यहाँ ग्लेशियरों का अध्ययन तुलनात्मक रूप से कम कम हुआ है। डॉ तायल बताते हैं कि इस क्षेत्र में ग्लेशियर अनुसंधान और सामाजिक-आर्थिक मूल्यांकन की तत्काल आवश्यकता है।
टेरी के ग्लेशियर रिसर्च प्रोग्राम ने एक दशक से अधिक समय तक अपने प्रयासों को बनाए रखा है। स्थानीय पारिस्थितिकी और समुदायों की आजीविका पर जलवायु परिवर्तन के दीर्घकालिक प्रभावों पर टेरी लगातार काम कर रही है। टेरी की योजना इनपर अधिक निर्णायक सबूत खोजने के लिए अपने रिसर्च को और बढ़ाने की है।
All pictures in the story were taken by TERI's expedition team under Glacier Research Programme