विकास के रास्ते पर बढ़ते हुए शहरी कचरा भी बढ़ रहा है। इसमें नगरपालिका का कचरा, निर्माण और तोड़ फोड़ का मलबा, प्लास्टिक पैकेजिंग अपशिष्ट, ई-कचरा, औद्योगिक खतरनाक, गैर-खतरनाक और बायोमेडिकल अपशिष्ट शामिल है। इस कचरे से निपटने में विस्तारित निर्माता ज़िम्मेदारी (EPR) भूमिका पर ज़ोर देना होगा।
विकास के पथ पर तेजी से बढ़ते भारत जैसे देश में विभिन्न प्रकार का शहरी और औद्योगिक अपशिष्ट या कचरा उत्पन्न होता है। इनमें नगरपालिका का कचरा, निर्माण और तोड़ फोड़ का मलबा, प्लास्टिक पैकेजिंग अपशिष्ट, ई-कचरा, औद्योगिक खतरनाक, गैर-खतरनाक और बायोमेडिकल अपशिष्ट शामिल हैं। अलग अलग तरह का कचरा, इनके निपटान की एक अनोखी चुनौती पेश करता है। इनके निपटान के लिये पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने 2016 में छह बिन्दुओं की एक नियमावली बनाई थी। यह निर्माता की विस्तारित जिम्मेदारी (ईपीआर) पर केंद्रित है जिसमें निर्माताओं को उनके उत्पादों से निकलने वाले कचरे को एकत्र करने और प्रसंस्करण की जिम्मेदारी सौंपने की बात कही गई है।
शहरी कचरा प्रबंधन के लिए संस्थागत संरचना
ठोस अपशिष्ट प्रबंधन नियमों के कार्यान्वयन के आदेश के कुछ पहलुओं में, खासकर नगरपालिका के ठोस कचरे, विशेष रूप से उसके संग्रह, प्रसंस्करण और परिवहन के मामले में हालांकि सुधार हुआ है, लेकिन शहरों को अभी भी वैज्ञानिक अपशिष्ट निपटान स्थलों की स्थापना सुनिश्चित करना है। इसके अलावा, नियम के तहत अपशिष्ट प्रबंधन पर राष्ट्रीय नीति तैयार करने की जरूरत है और फिर इस नीति को अमल में लाने के लिये राज्य स्तरीय नीतियों और शहर स्तर की कार्य योजनाओं की आवश्यकता है। हालांकि, भारत के अधिकांश राज्य और शहर अभी ऐसा नहीं कर पाये हैं। नीचे दिए गए सुझावों पर ध्यान दिया जाना चाहिए –
- राष्ट्रीय स्तर पर एक तकनीकी सेल का गठन किया जाये, हो सके तो यह आवास और शहरी मामलों के मंत्रालय के तहत हो, जो राज्य शहरी विकास विभाग और स्थानीय निकायों की एसडब्ल्यूएम नियम, 2016 को लागू करने में सहायता कर सके। स्थानीय निकायों की सहायता के लिए राज्य स्तर पर इसी प्रकार के सेल का गठन किया जाये, और
- राज्य सरकारें उन्हें तकनीकी और वित्तीय सहायता प्रदान करने के लिए योजनायें और नीति बना सकती हैं।
आंकड़े तैयार करना
विभिन्न प्रकार के शहरी अपशिष्ट के प्रबंधन में प्रमुख चुनौतियों में से तरह तरह के अपशिष्ट की सूची के विश्वसनीय आंकड़े तैयार करना और यह सुनिश्चित करना है कि विभिन्न हितधारकों को संग्रह और प्रसंस्करण पर लगातार आंकड़े उपलब्ध होते रहें ताकि वे ठोस जानकारी के आधार पर निर्णय ले सकें। उदाहरण के लिए, सीपीसीबी की वार्षिक रिपोर्टों में एमएसडब्ल्यू प्रबंधन के पिछले कुछ वर्षों के आंकड़ों के विश्लेषण से पता चलता है कि बढ़ती हुई शहरी आबादी के कारण उत्पन्न कचरे में वृद्धि की बजाय, वास्तव में गिरावट दिखाई देती है क्योंकि आंकड़ों की रिपोर्ट करने वाले शहरों की कुल संख्या हर साल अपरिवर्तित है। इससे प्रवृत्ति का आकलन करना और दीर्घकालिक योजना तैयार करना कठिन हो जाता है। इसे दूर करने के लिए निम्नलिखित क्षेत्रों पर ध्यान देने की आवश्यकता है —
- शहरों और कस्बों के लिए आंकड़ों के संग्रहण का समान प्रारूप विकसित करना, जो विश्लेषण के लिए केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) को प्रेषित किया जा सकता है। इस प्रारूप में दैनिक अपशिष्ट उत्पादन, संग्रहण, प्रसंस्करण, रीसायक्लिंग और लैंडफिल से निकले कचरे की जानकारी शामिल होनी चाहिए।
- एकत्र की गई जानकारी, उदाहरण के लिये, सेनेटरी इंस्पेक्टरों से उच्च अधिकारियों तक उपयुक्त रूप से तैयार की गई प्रबंधन सूचना प्रणाली के माध्यम से पहुंचनी चाहिए।
इसी तरह, ई-कचरे के मामले में, बाजार में उपलब्ध इलेक्ट्रॉनिक वस्तुओं की संख्या और उपभोक्ता के व्यवहार के आधार पर एकत्रित आंकड़ों के माध्यम से ई कचरे की मात्रा का अनुमान लगाया जा सकता है। इसलिए यह आवश्यक है कि इन अपशिष्टों में से प्रत्येक के लिए शहरी स्थानीय निकायों सहित सभी हितधारकों को शामिल करके नियमित रूप से आंकडों का संग्रहण किया जाये और उन्हें तुरंत उपलब्ध कराया जाये। निर्माताओं को अपशिष्ट प्रबंधन के लिए एक निर्धारित प्रवृत्ति पर पहुंचना होगा और दीर्घकालिक योजना बनाना होगा।
यह महत्वपूर्ण है क्योंकि संग्रहण और प्रसंस्करण के लिए बुनियादी ढांचा तैयार करना होगा जो विभिन्न तरह के कचरे की वर्तमान के साथ ही भविष्य की स्थिति के आकलन के अनुरूप होगा।
सीमाओं से परे के मामलों पर ध्यान देना
प्लास्टिक की मांग, वर्ष 2000 से स्टील, एल्यूमीनियम और सीमेन्ट जैसी थोक सामग्रियों की मांग को पीछे छोड़ते हुए लगभग दुगनी हो गई। वैश्विक प्लास्टिक मांग का लगभग एक तिहाई पैकेजिंग क्षेत्र में है। भारत में यह प्लास्टिक की मांग का लगभग 43 प्रतिशत है, और संग्रहित कचरे में से केवल 60 प्रतिशत की ही वार्षिक रीसायक्लिंग होती है। यहां चिंता का विषय वह प्लास्टिक का कचरा है जिसका संग्रह नहीं हो पाता। इनमें से अधिकतर केवल एक बार उपयोग करने योग्य है, जिनमें कचरा संग्रह करने वालों की रुचि नहीं होती। यह कचरा या तो लैंडफिल या जल स्रोतों तक पहुंचता है और वहां से यह भारत के विशाल समुद्री क्षेत्र तक पहुंच जाता है और समुद्री कचरे में इजाफा करता है। इससे निपटने के निम्नलिखित तरीके हैं —
- एकल उपयोग वाले और कम मूल्य वाले प्लास्टिक की संग्रह दरों को बढ़ा कर इनके संग्रह को प्रोत्साहित करना;
- यह सुनिश्चित करना कि जिन वस्तुओं की रीसायक्लिंग नहीं हो सकती, वे या तो कचरे से ऊर्जा में प्रसंस्करित किये जायें, जिसमें पायरोलिसिस शामिल हो या इनको सीमेंट भट्टों में वैकल्पिक ईंधन के रूप में सह-संसाधित किया जाये।
इसका न केवल राष्ट्रीय स्तर पर प्रभाव पड़ेगा, बल्कि इससे विश्व भर में नियामकों का समुद्री कचरे के मुद्दे पर ध्यान जायेगा।
यह लेख हमारे हरित एजेन्डा सीरीज का हिस्सा है। इस एजेन्डा के तहत हम पर्यावरण की दृष्टि से महत्वपूर्ण विषयों पर अपने सुझाव प्रस्तुत करते हैं। हमारी सिफारिशों को देखने के लिये नीचे दिये गये आइकन पर क्लिक करें —