जल संसाधन सीमित और दुर्लभ हैं। पानी घट रहा है और साल 2050 तक यह कमी एक बड़ा संकट बन सकती है। ऐसे में हमें वर्षा जल संचयन जैसे जल संरक्षण के स्थायी तरीकों को अपनाना चाहिए। वर्षा जल संरक्षण न सिर्फ मैदानी बल्कि पहाड़ी इलाकों के लिए भी ज़रूरी है।
जल एक ऐसा प्राकृतिक संसाधन है जिसके बारे में विशेषज्ञों का कहना है कि आने वाले सालों में जल की कमी एक बड़ा संकट बन जाएगी। इसलिए मानव उपयोग के लिए जल प्रबंधन के स्थायी तरीकों पर बात करना बेहद ज़रूरी है। और इनमें से एक तरीका है वर्षा जल संचयन। मानव उपयोग के लिए वर्षा जल संग्रहण और भंडारण एक प्रक्रिया है और स्थायी जल प्रबंधन की तरफ एक महत्वपूर्ण कदम भी। भारत में लगभग 1105 मिमी औसत वर्षा होती है, लेकिन अलग-अलग समय और अलग-अलग जगहों पर इसकी मात्रा बदलती रहती है। वर्षा की असमानता इस तथ्य में भी दिखाई देती है कि ब्रह्मपुत्र और बराक बेसिन में प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता 11782 घन मीटर है, जबकि गंगा बेसिन में यह लगभग 1039 घन मीटर प्रति व्यक्ति है (केंद्रीय जल आयोग 2019, किम एट अल 2018)। साल 2010 में भारत की प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता 1545 क्यूबिक मीटर थी (जल संसाधन मंत्रालय, भारत सरकार, 2012), और यह जल तनाव (Water-stressed) की स्थिति को दिखाता है। पानी घट रहा है और यह स्थिति दिखाती है कि साल 2050 तक यह एक बड़ा संकट बन सकता है।
भारत में जलविद्युत चक्र (Hydrological cycle) के माध्यम से उत्पन्न होने वाले 1999 बीसीएम (अरब घन मीटर) (केंद्रीय जल आयोग 2019) पानी में से केवल 1123 बीसीएम पानी ही उपयोग हो पाता है। इसमें धरातलीय जल का योगदान 690 बीसीएम और बाकी योगदान 433 बीसीएम (जल संसाधन मंत्रालय, भारत सरकार, 1999) भू-जल का है। बाकी पानी का टोपोग्राफी, फिज़िओग्राफी, टेक्नोलॉजी आदि से जुड़ी सीमाओं के चलते उपयोग नहीं हो पाता।
जल संसाधन सीमित और दुर्लभ हैं। जलवायु परिवर्तन के असर, उच्च जनसंख्या वृद्धि और वैश्विक तापमान में हो रही वृद्धि का असर इन स्रोतों पर पड़ रहा है। और साथ ही तेज़ी से हो रहे औद्योगिकीकरण की वजह से निकलने वाले रासायनिक अपशिष्टों का बहाव भी इन जल निकायों को प्रदूषित कर रहा है।
वर्षा जल संचयन के फ़ायदे
वर्षा जल संचयन की प्रक्रिया में छत पर जमा होने वाले वर्षा के जल को धरातल यानि ज़मीन पर लाया जाता है और फिर उसे टैंकों, तालाबों, कुओं, बोरवेल, जलाशय आदि में इकठ्ठा किया जाता है। वर्षा जल को इकठ्ठा करने के लिए रिचार्ज गड्ढों का निर्माण किया जाता है। गड्ढों को कंकर, बजरी, मोटे रेत से भरा जाता है और वे अशुद्धियों के लिए एक फिल्टर की तरह काम करते हैं।
वर्षा जल संचयन न सिर्फ़ मैदानी इलाकों के लिए बल्कि पहाड़ी क्षेत्रों के लिए भी उतना ही ज़रूरी है। खासकर ऐसे वक़्त में जब हम पहाड़ी इलाकों के शहरीकरण और उनमें पैदा हुई पानी की समस्या की खबरे सुनते रहते हैं। पहाड़ी इलाकों में कृषि लोगों की जीवन रेखा है और उसके लिए पानी पर उनकी निर्भरता और ज़्यादा बढ़ जाती है इसलिए वर्षा जल संचयन खेती के लिए एक महत्वपूर्ण तरीका हो सकता है। यह तरीका उन किसानों के लिए आदर्श है जो लगातार पानी की आपूर्ति के लिए मानसून पर निर्भर रहते हैं। इससे सतह पर होने वाला अपवाह (surface run-off) कम होता है और साथ ही मिट्टी की उर्वरता बढ़ती है।
वर्षा जल संचयन नगर पालिका से मिलने वाले पानी पर हमारी निर्भरता कम करेगा। वर्षा जल में कोई फ्लोराइड या क्लोरीन नहीं होता, इसलिए इस पानी की गुणवत्ता काफी अच्छी होती है। बारिश का पानी जब ज़मीन पर आता है या तो वो सीपेज सिस्टम के ज़रिए भूजल को बढ़ाने में मदद करता है या फिर ज़मीन के ऊपर बहता है जब तक कि वह पास की नदी, झील या समुद्र में नहीं जाता। इस पानी के संचयन से नदियों और धाराओं का कटाव (Stream bank erosion) भी कम होता है।
वर्षा जल संचयन नगरपालिका के पानी के ट्रीटमेंट और पंपिंग लागत को भी कम करता है जिसके लिए अच्छी-खासी बिजली की आवश्यकता होती है। इसका आर्थिक लाभ यह है कि ये पानी के बिल को कम करता है। भू-जल को रिचार्ज करने, इसका स्तर बढ़ाने और जल प्रदूषण को कम करने में भी इससे मदद मिलती है। इसके अलावा संचयन स्थानीय समुदायों के लिए टिकाऊ जल रणनीति का एक हिस्सा है।
हालांकि वर्षा जल संचयन के लिए तकनीकी कौशल की आवश्यकता होती है और यदि इसे ठीक से ना किया जाए तो ये मच्छर और अन्य पानी-जनित रोग भी पैदा कर सकता है।
वर्षा जल संचयन के लिए राज्यों के प्रयास
विभिन्न भारतीय राज्यों ने वर्षा जल संचयन को बढ़ावा देने के लिए कदम उठाए हैं। तमिलनाडु (विशेष रूप से चेन्नई), हिमाचल प्रदेश, गुजरात (विशेष रूप से अहमदाबाद), बैंगलोर, केरल, दिल्ली, मध्य प्रदेश (इंदौर), उत्तर प्रदेश (कानपुर), तेलंगाना (हैदराबाद), हरियाणा, राजस्थान, महाराष्ट्र (विशेष रूप से मुंबई) जैसे राज्यों ने वर्षा जल संचयन को बढ़ावा देने के लिए अपने कानून और दिशा-निर्देशों में संशोधन किया है। उदाहरण के लिए, साल 2003 में चेन्नई ने राज्य में सभी सार्वजनिक और निजी भवनों में वर्षा जल संचयन को अनिवार्य करने के लिए एक अध्यादेश जारी किया। यह सब उस वक़्त किया गया जब चेन्नई बड़े जल संकट से गुज़र रहा था। यदि इसका अनुपालन नहीं होता है तो चेन्नई में नगरपालिका प्राधिकरण वर्षा जल संचयन गतिविधि का संचालन करता है और पीने के पानी की लागत को निवासियों से नगरपालिका कर के रूप में वसूल किया जाता है। यहां तक कि अनुपालन न होने की स्थिति में पानी की आपूर्ति बंद होने की भी संभावना होती है। हालाँकि राज्यों में वर्षा जल संचयन के लिए एक समान दृष्टिकोण और दिशा-निर्देश नहीं है।
राष्ट्रीय स्तर पर मज़बूत प्रयास ज़रूरी
भारतीय राज्यों ने वर्षा जल संचयन को बढ़ावा देने के लिए एक अलग अलग तरीके अपनाए हैं लेकिन इसके लिए राष्ट्रीय स्तर पर एकरूप सिद्धांतों को बनाने की आवश्यकता है। जल संसाधन मंत्रालय इसके लिए समग्र मॉडल और दिशा-निर्देश तैयार कर सकता है जिसे राज्य लागू कर सकते हैं। हालांकि राज्यों से सलाह लेने के बाद ही इन दिशा-निर्देशों को तैयार किया जाना चाहिए।
वर्षा जल संचयन के लिए ढांचों का निर्माण कोई आसान काम नहीं है। इसके लिए विषय के कौशल और समझ की आवश्यकता होती है। इन ढांचों के निर्माण के लिए सरकार/राज्यों / नगरपालिकाओं के विशेषज्ञों और कर्मचारियों को उपयुक्त प्रशिक्षण देना चाहिए।
वर्षा जल संचयन के टिकाऊ प्रबंधन के लिए लोगों में जागरूकता फैलाने की आवश्यकता है। संचयन के सबसे अच्छे उदाहरण लोगों के बीच साझा किए जाने चाहिए। इसका प्रचार एक जन आंदोलन की तरह होना चाहिए। इस दिशा में प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।